अ॒स्मा इदु॒ प्र त॒वसे॑ तु॒राय॒ प्रयो॒ न ह॑र्मि॒ स्तोमं॒ माहि॑नाय। ऋची॑षमा॒याध्रि॑गव॒ ओह॒मिन्द्रा॑य॒ ब्रह्मा॑णि रा॒तत॑मा ॥
asmā id u pra tavase turāya prayo na harmi stomam māhināya | ṛcīṣamāyādhrigava oham indrāya brahmāṇi rātatamā ||
अ॒स्मै। इत्। ऊँ॒ इति॑। प्र। त॒वसे॑। तु॒राय॑। प्रयः॑। न। ह॒र्मि॒। स्तोम॑म्। माहि॑नाय। ऋची॑षमाय। अध्रि॑ऽगवे। ओह॑म्। इन्द्रा॑य। ब्रह्मा॑णि। रा॒तऽत॑मा ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब इकसठवें ६१ सूक्त का आरम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में सभा आदि का अध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश किया है ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ सभाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
यथाहमु प्रयो न प्रीतिकारकमन्नमिव तवसे तुराय ऋचीषमायाध्रिगवे माहिनायास्मा इन्द्राय सभाद्यध्यक्षायेदेवौहं स्तोमं राततमा ब्रह्माण्यन्नानि धनानि वा प्रहर्मि प्रकृष्टतया ददामि तथा यूयमपि कुरुत ॥ १ ॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात सभाध्यक्ष इत्यादीचे वर्णन व अग्निविद्येचा प्रचार करणे सांगितलेले आहे. यामुळे या सूक्तार्थाबरोबर पूर्वीच्या सूक्तार्थाची संगती जाणली पाहिजे.